Wednesday 29 September 2021

Invaders

29 September 2021

How Maharaja Ranjit Singh reunited Sikh territories and crushed Afghan invaders? Medieval India UPSC - YouTube 

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DarbarShahab Copied from Anil Sood information: Please find truth from the literature.
·18h
हिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया तो पड़ोसी मुल्कों के राजाओं की आंखें फटी की फटी रह गईं......
कंबोडिया के अंकोरवाट मंदिर को हम देखते हैं तो पता चलता है कि भारत गुप्तकाल में किस भव्यता के साथ खड़ा था। 7वीं सदी के पूर्व भारतीय लोग शांत और सुरक्षित जीवन जी रहे थे। युद्ध थे लेकिन युद्ध का स्वरूप अलग था। इससे पूर्व गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल कहा जाता है। इससे पूर्व बौद्धकाल में भारत ने दर्शन, विज्ञान और ज्ञान की नई ऊंचाइयों को छूआ था, लेकिन हर्षवर्धन के जाने के बाद भारत का भाग्य पलट गया। विदेशी आक्रांताओं ने भारत को खंडहर में बदल दिया। भारत पर यूनानी, मंगोल, अरबी, ईराकी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, मुगल और अंग्रेज ने राज किया। ये सभी विदेशी थे। इनके शासनकाल में जहां भारतीय गौरव को नष्ट किया गया वहीं बड़े पैमाने पर धर्मांतरण भी हुआ। आज भी इन विदेशी आक्रांताओं के चिन्ह मौजूद हैं।
अफगानिस्तान (आर्याना) में हिन्दूशाही राजवंश राज करता था। अरब और तुर्कमेनिस्तान के लुटेरों और खलीफाओं ने सबसे पहले अफगानिस्तान पर हमला किया। अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों पर हजारों मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों को तोड़ा गया और बेरहमी से कत्लेआम किया गया। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ अफगानिस्तान के ही थे।
ईसा सन् 7वीं सदी तक गांधार के अनेक भागों में बौद्ध धर्म काफी उन्नत था। 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क आदि जगह के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किया और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ। कई महीनों-सालों तक लड़ाइयां चलीं और अंत में काफिरिस्तान को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए और आज अपने ही अपनों के खिलाफ हैं।
मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार हिन्दूशाही की लूट का माल जब गजनी में प्रदर्शित किया गया था तो पड़ोसी मुल्कों के राजाओं की आंखें फटी की फटी रह गईं। भीमनगर (नगरकोट) से लूटकर ले गए माल को गजनी तक लाने के लिए ऊंटों की कमी पड़ गई थी।
711 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्जा कर ब्राह्मण राजा दाहिर को पलायन करने पर मजबूर कर दिया था। 200 साल अंग्रेजों के शासन सहित भारतीय लोग लगभग 700 वर्षों से ज्यादा वर्ष तक विदेशी गुलामी में जीते रहे। कुल गुलामी का काल 1,236 वर्ष से भी ज्यादा रहा। अंग्रेजों ने संपूर्ण भारत को अपने अधीन कर लिया था जबकि विदेशी आक्रांता मुगल ऐसा नहीं कर पाए।
सिंध पर बहुत समय तक कभी हिन्दू तो कभी विदेशी मुस्लिम राजा राज करते रहे, लेकिन 1176 ईस्वी में शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने सभी को आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और गजनी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर 17 हमले किए और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली।
12वीं सदी में इस्लामी आक्रमण बढ़ गए तब उत्तर और केंद्रीय भारत का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत आ गया। बाद में अधिकांश भारत मुगल वंश के अधीन चला गया। लेकिन दक्षिण भारत, महाराष्ट्र और राजस्थान के राजाओं ने कभी मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की और वे लड़ते रहे। दक्षिण भारत में विजयनगरम साम्राज्य सबसे शक्तिशाली था।
गजनवी और गौरी : महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी सबसे बड़े आक्रांता थे। महमूद गजनवी ने सिन्धु नदी के पूर्व में तथा यमुना नदी के पश्चिम में बसे साम्राज्यों पर आक्रमण कर कई बार इसे लूटा और यहां की हजारों स्त्रियों को बंदी बनाकर उन्हें अफगान और अरब भेजा। गोर वंश के सुल्तान मुहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर योजनाबद्ध तरीके से हमले किए। उसका उद्देश्य इस्लाम को बढ़ाना था। मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच तराईन के मैदान में दो युद्ध हुए। शहाब-उद-दीन मुहम्मद गौरी 12वीं शताब्दी का अफगान सेनापति था, जो 1202 ई. में गौरी साम्राज्य का शासक बना। मुहम्मद गौरी ने मुल्तान पर आक्रमण करने के बाद पाटन (गुजरात) पर आक्रमण किया, जहां उसे मुंह की खानी पड़ी। राजा भीम द्वितीय ने उसे बुरी तरह पराजित करके छोड़ दिया। मोहम्मद गौरी ने भारत में विजित साम्राज्य का अपने सेनापतियों को सौंप दिया और वह गजनी चला गया। बाद में गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम राजवंश की नींव डाली।
गुलाम वंश (1206-1526) : दिल्ली पर तुर्क वंश के 4 लोगों ने राज किया। अंतिम शासक अफगानी था। 5वें वंश को गुलाम वंश कहा गया। इसमें खिलजी, तुगलक, सैयद और लौधी वंश। मुहम्मद गौरी का गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक इस वंश का पहला सुल्तान था। ऐबक का साम्राज्य पूरे उत्तर भारत तक फैला था। इसके बाद खिलजी वंश ने मध्यभारत पर कब्जा किया। चूंकि गुलामों को अपनी योग्यता और अपने कार्यों को अच्छे से प्रदर्शित करना होता है तो उन्होंने भरत के महान स्तंभों, मंदिरों और स्तूपों को तोड़कर उनका इस्लामीकरण करने का कार्य अधिक किया। 1526 में मुगल सल्तनत द्वारा इस इस साम्राज्य का अंत हुआ।
मुगल वंश के अंत के बाद तुर्क वंश के आक्रांताओं ने एक बार फिर भारत पर आक्रमण कर अपनी सत्ता कायम की। इस क्रम में बाबर (1526-1530), हुंमायूं (1530-1556), अकबर (1556-1605), जहांगीर (1605-1627), शाहजहां (1627-1658), औरंगजेब (1658-1707) और अंतिम मुगल बहादुरशाह जफर (1837-1858) ने क्रमश: शासन किया।
अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के बाद ब्रिटेन का शासन शुरू हुआ। मैसूर के युद्ध के बाद संपूर्ण भारत ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया। 18वीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंबई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर कब्जा कर लिया। उधर फ्रांसीसियों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर कब्जा कर लिया। इस तरह ब्रिटेन ने धीरे-धीरे कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां लड़कर संपूर्ण भारत को अपने अधीन कर लिया।
7वीं सदी से 1947 तक भारत के हिन्दू और हिन्दू से मुसलमान बने लोग भी गुलामी की जिंदगी जीते रहे हैं। इस दौरान गुलाम वंश के शासकों, मुगलों, अंग्रेजों आदि ने भारत की सांस्कृतिक अस्मिता व अभिमान को कुचलने के साथ ही सबसे बड़े धार्मिक, राजनीतिक और ज्योतिषी प्रतीकों को ध्वस्त करके उसकी जगह अपनी विजेता शक्ति का प्रतीक कायम किया। ये ध्वस्त प्रतीक आज विवादित प्रतीक माने जाते हैं।
तुर्क और अरब के आक्रांताओं ने जब भारत पर आक्रमण किया तो उन्होंने सबसे पहले हिन्दू और बौद्ध धर्म के सबसे बड़े प्रतीकों को ढहाना शुरू किया। उनमें अयोध्या, काशी, मथुरा और उत्तर भारत के तमाम मंदिर, स्मारक, स्थल और स्तंभ थे। इस दौरान उनको अधिक से अधिक संख्या में नमाज के लिए मस्जिदें और रहने के लिए महल भी बनवाने थे, इसलिए उन्होंने शुरुआत में अधिकतर मंदिरों को मस्जिद में बदल दिया, तो राजपूताना महलों को अपने रहने और सेना के रुकना का स्थान बना लिया। तुर्क और अरब के आक्रांता तो चले गए। बस मुट्ठीभर ही उनके वंश के लोग बचे होंगे, लेकिन वे अपने पिछे ध्वस्त किए हुए स्थान और धर्मान्तरित किए हुए हिन्दू छोड़ गए। आज भी उत्तर प्रदेश के ऐसे कई परिवार और गांव हैं जहां पर एक भाई हिन्दू है तो दूसरा मुसलमान है। लेकिन शहरों का माहौल बदल गया है। वैसे तो हजारों विवादित स्थल है उनमें से कुछ ध्वस्त स्थल है जैसे नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय।
आओ जानते हैं कि भारत में ऐसे कौन कौन से 10 स्थल या स्मारक हैं जो पहले बौद्ध, गुप्त और राजपूत काल में बनवाए गए थे और जिन पर अब विवाद की स्थिति बना दी गई है।
#ताजमहल : आगरा का ताजमहल भारत की शान और प्रेम का प्रतीक चिह्न माना जाता है। उत्तरप्रदेश का तीसरा बड़ा जिला आगरा ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय इतिहास के पन्नों में यह लिखा है कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। वह मुमताज से प्यार करता था। दुनियाभर में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है, लेकिन कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया था वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया था। दरअसल, यह हिन्दुओं का 'तेजोमहालय' था।
शब्द ताजमहल के अंत में आए 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो। बाद में यह प्रचारित किया गया कि मुमताज-उल-जमानी को ही मुमताज महल कहा जाता था।
प्रसिद्ध शोधकर्ता और इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में तथ्यों के माध्यम से ताजमहल के रहस्य से पर्दा उठाया है। ओक के अनुसार जयपुर राजा से हड़प किए हुए पुराने महल को शाहजहां ने मुमताज की कब्र के रूप में प्रचारित किया। कब्र होने के कारण किसी ने यह नहीं सोचा कि बादशाह ने दरअसल इसे अपनी दौलत रखने का स्थान बनाया था। शाहजहां ने वहां अपनी लूट की दौलत छुपा रखी थी इसलिए उसे कब्र के रूप में प्रचारित किया गया।
लेखकर के अनुसार शाहजहां के दरबारी लेखक 'मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी' ने अपने 'बादशाहनामा' में मुगल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज्यादा पृष्ठों मे लिखा है, जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-जमानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 06 माह बाद, तारीख 15 जमदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया। फिर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) में पुनः दफनाया गया। लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस महला से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के दबाव में वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात की पुष्टि के लिए जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनों आदेश अभी तक रखे हुए हैं जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे।
इतिहासकारों अनुसार प्रारंभिक दौर में मुस्लिम शासकों के समय प्रायः मृत दरबारियों और तुर्क राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था। हुमायूं, अकबर, सफदर जंग आदि ऐसे ही प्राचीन भारतीय भवनों में दफनाएं गए हैं। बाद में हिन्दू से मुसलमान बने लोगों के लिए कब्रिस्तान बनाए गए।
#कुतुबमीनार : कुतुब मीनार को पहले विष्णु स्तंभ कहा जाता था। इससे पहले इसे सूर्य स्तंभ कहा जाता था। इसके केंद्र में ध्रुव स्तंभ था जिसे आज कुतुब मीनार कहा जाता है। इसके आसपास 27 नक्षत्र के आधार पर 27 मंडल थे। इसे वराहमिहिर की देखरेख में बनाया गया था। चंद्रगुप्त द्वितिय के आदेश से यह बना था। ज्योतिष स्तंभों के अलावा भारत में कीर्ति स्तम्भ बनाने की परंपरा भी रही है। खासकर जैन धर्म में इस तरह के स्तंभ बनाए जाते रहे हैं। आज भी देश में ऐसे कई स्तंभ है, लेकिन तथाकथित कुतुब मीनार से बड़े नहीं। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में ऐसा ही एक स्तंभ स्थित है।
ऐसा भी कहते हैं कि समुद्रगुप्त ने दिल्ली में एक वेधशाला बनवाई थी, यह उसका सूर्य स्तंभ है। कालान्तर में अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान के शासन के समय में उसके आसपास कई मंदिर और भवन बने, जिन्हें मुस्लिम हमलावरों ने दिल्ली में घुसते ही तोड़ दिया था। कुतुबुद्दीन ने वहां 'कुबत−उल−इस्लाम' नाम की मस्जिद का निर्माण कराया और इल्तुतमिश ने उस सूर्य स्तंभ में तोड़-फोड़कर उसे मीनार का रूप दे दिया था।
माना जाता है कि गुलाम वंश के पहले शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में कुतुब मीनार का निर्माण शुरू करवाया था और उसके दामाद एवं उत्तराधिकारी शमशुद्दीन इल्तुतमिश ने 1368 में इसे पूरा किया था। लेकिन क्या यह सच है? मीनार में देवनागरी भाषा के शिलालेख के अनुसार यह मीनार 1326 में क्षतिग्रस्त हो गई थी और इसे मुहम्मद बिन तुगलक ने ठीक करवाया था। इसके बाद में 1368 में फिरोजशाह तुगलक ने इसकी ऊपरी मंजिल को हटाकर इसमें दो मंजिलें और जुड़वा दीं। इसके पास सुल्तान इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, बलबन व अकबर की धाय मां के पुत्र अधम खां के मकबरे स्थित हैं।
उसी कुतुब मीनार की चारदीवारी में खड़ा हुआ है एक लौह स्तंभ। दिल्ली के कुतुब मीनार के परिसर में स्थित यह स्तंभ 7 मीटर ऊंचा है। इसका वजन लगभग 6 टन है। इसे गुप्त साम्राज्य के चन्द्रगुप्त द्वितीय (जिन्हें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य भी कहा जाता है) ने लगभग 1,600 वर्ष पूर्व बनवाया। यह लौह स्तंभ प्रारंभ से यहां नहीं था। सवाल उठता है कि क्या यह लौह स्तंभ भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था? इतनी बड़ी मीनार जब बनी होगी तो यदि यह स्तंभ पहले से यहां रहा होगा तो उसी समय में हट जाना चाहिए था।
गुप्त साम्राज्य के सोने के सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि यह स्तंभ विदिशा (विष्णुपदगिरि/उदयगिरि- मध्यप्रदेश) में स्थापित किया गया था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जैन मंदिर परिसर के 27 मंदिर तोड़े तब यह स्तंभ भी उनमें से एक था। दरअसल, मंदिर से तोड़े गए लोहे व अन्य पदार्थ से उसने मीनार में रिकंस्ट्रक्शन कार्य करवाया था। उनके काल में यह स्तंभ समय बताने का भी कार्य करता था। सम्राट अशोक ने भी कई स्तंभ बनवाए थे, उसी तरह चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी कई स्तंभ बनवाए थे। ऐसा माना जाता है कि तोमर साम्राज्य के राजा विग्रह ने यह स्तंभ कुतुब परिसर में लगवाया। लौह स्तंभ पर लिखी हुई एक पंक्ति में सन् 1052 के तोमर राजा अनंगपाल (द्वितीय) का जिक्र है।
जाट इतिहास के अनुसार ऐबक को मीनार तो क्या, अपने लिए महल व किला बनाने तक का समय जाटों ने नहीं दिया। उसने तो मात्र 4 वर्ष तक ही शासन किया। इस मीनार को जाट सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (विक्रमादित्य) के कुशल इंजीनियर वराहमिहिर के हाथों चौथी सदी के चौथे दशक में बनवाया गया था। यह मीनार दिलेराज जाट दिल्ली के राज्यपाल की देखरेख में बनी थी।
हरिदत्त शर्मा ने अपनी किताब ज्योतिष विश्व कोष में लिखा है कि कुतुब मीनार के दोनों ओर दो पहाड़ियों के मध्य में से ही उदय और अस्त होता है। आचार्य प्रभाकर के अनुसार 27 नक्षत्रों का वेध लेने के लिए ही इसमें 27 भवन बनाए गए थे। 21 मार्च और 21 सितंबर को सूर्योदय तुगलकाबाद के स्थान पर और सूर्यास्त मलकपुर के स्थान पर होता देखा जा सकता है। मीनार का प्रवेश द्वार उत्तर की ओर है न कि इस्लामिक मान्यता के अनुसार पश्चिम की ओर। अंदर की ओर उत्कीर्ण अरबी के शब्द स्पष्ट ही बाद में अंकित किए हुए नजर आते हैं। मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के संस्थापक ने यह स्वीकार किया है कि यह हिन्दू भवन है। स्तंभ का घेरा 27 मोड़ों और त्रिकोणों का है। बाद के लोगों ने कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक से जोड़ दिया जबकि 'कुतुब मीनार' का अर्थ अरबी में नक्षत्रीय और वेधशाला होता है। इसका पुराना नाम 'ध्रुव स्तंभ' और 'विष्णु स्तंभ'था। मुस्लिम शासकों ने इसका नाम बदला और इस पर से कुछ हिन्दू चिह्न मिटा दिए जिसके निशान आज भी देखे जा सकते हैं।
राजा विक्रमादित्य के समय में उज्जैन और दिल्ली की कालजयी बस्ती के बीच का 252 फुट ऊंचा स्तंभ है। वराह मिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से गुजरता है। पड़ोस में जो बस्ती है उसे आजकल महरौली कहते हैं जबकि वह वास्तव में वह मिहिरावली थी। इस मीनार के आसपास 27 नक्षत्र मंडप थे जिसे ध्वस्त कर दिया गया।
यह माना जाता है कि कुववत-उल-इस्लाम मस्जिद और कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताइस हिन्दू मंदिरों के अवशेष आज भी मौजूद हैं। महरौली स्थित लौह स्तम्भ जंग लगे बिना विभिन्न संघर्षों का मूक गवाह रहा है और राजपूत वंश के गौरव और समृद्धि की कहानी को बयां करता है।
#लालकिला : कहते हैं कि इतिहास वही लिखता है, जो जीतता है या जो शासन करता है। लाल किला किसने बनवाया था? यदि यह सवाल भारतीयों से पूछा जाए तो सभी कहेंगे शाहजहां ने। मुगल लाल किले को कभी लाल किला नहीं लाल हवेली कहते थे। क्यों? कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातन किला एवं हवेली बताते हैं जिसे शाहजहां ने कब्जा करके इस पर तुर्क छाप छोड़ी थी। दिल्ली का लालकोट क्षेत्र हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान की 12वीं सदी के अंतिम दौर में राजधानी थी। लालकोट के कारण ही इसे लाल हवेली या लालकोट का किला कहा जाता था। बाद में लालकोट का नाम बदलकर शाहजहानाबाद कर दिया गया।
लाल कोट अर्थात लाल रंग का किला, जो कि वर्तमान दिल्ली क्षेत्र का प्रथम निर्मित नगर था। इसकी स्थापना तोमर शासक राजा अनंगपाल ने 1060 में की थी। साक्ष्य बताते हैं कि तोमर वंश ने दक्षिण दिल्ली क्षेत्र में लगभग सूरज कुण्ड के पास शासन किया, जो 700 ईस्वी से आरम्भ हुआ था। फिर चौहान राजा, पृथ्वी राज चौहान ने 12वीं सदी में शासन ले लिया और उस नगर एवं किले का नाम किला राय पिथौरा रखा था। राय पिथौरा के अवशेष अभी भी दिल्ली के साकेत, महरौली, किशनगढ़ और वसंत कुंज क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।
इतिहासकार मानते हैं कि शाहजहां (1627-1658) ने जो कारनामा तेजोमहल के साथ किया वही कारनामा लाल कोट के साथ। लाल किला पहले लाल कोट कहलाता था। दिल्ली का लाल किला शाहजहां के जन्म से सैकड़ों साल पहले 'महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय' द्वारा दिल्ली को बसाने के क्रम में ही बनाया गया था। महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय अभिमन्यु के वंशज तथा परमवीर पृथ्वीराज चौहान के नानाजी थे।
शाहजहां ने 1638 में आगरा से दिल्ली को राजधानी बनाया तथा दिल्ली के लाल किले का निर्माण प्रारंभ किया। अनेक मुस्लिम विद्वान इसका निर्माण 1648 ई. में पूरा होना मानते हैं। लेकिन ऑक्सफोर्ड बोडिलियन पुस्तकालय में एक चित्र सुरक्षित है जिसमें 1628 ई. में फारस के राजदूत को शाहजहां के राज्याभिषेक पर लाल किले में मिलता हुआ दिखलाया गया है। यदि किला 1648 ई. में बना तो यह चित्र सत्य का अनावरण करता है।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि तारीखे फिरोजशाही में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल (लाल प्रासाद/महल ) की ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया।
कई भारतीय विद्वान इसे लाल कोट का ही परिवर्तित रूप मानते हैं। इसमें संदेह नहीं कि लाल किले में अनेक प्राचीन हिन्दू विशेषताएं-किले की अष्टभुजी प्राचीर, तोरण द्वार, हाथीपोल, कलाकृतियां आदि भारतीयों के अनुरूप हैं। शाहजहां के प्रशंसकों तथा मुस्लिम लेखकों ने उसके द्वारों, भवनों का विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया है।
इतिहास के अनुसार लाल किले का असली नाम 'लाल कोट' है जिसे महाराज अनंगपाल द्वितीय द्वारा सन् 1060 ईस्वी में बनवाया गया था। बाद में इस लाल कोट को पृथ्वीराज चौहान ने जीर्णोद्धार करवाया था। लाल किले को एक हिन्दू महल साबित करने के लिए आज भी हजारों साक्ष्य मौजूद हैं। यहां तक कि लाल किले से संबंधित बहुत सारे साक्ष्य पृथ्वीराज रासो में मिलते हैं।
तारीखे फिरोजशाही के लेखक के अनुसार सन् 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल (लाल प्रासाद/ महल) की ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया। सिर्फ इतना ही नहीं, अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलीशान दिल्ली का निर्माण करवाया था। शाहजहां से 250 वर्ष पहले 1398 ईस्वी में आक्रांता तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है।
लाल किले के एक खास महल में सूअर के मुंह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं। इस्लाम के अनुसार सूअर हराम है। साथ ही किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है, क्योंकि राजपूत राजा हाथियों के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे। इसी किले में दीवाने खास में केसर कुंड नामक कुंड के फर्श पर कमल पुष्प अंकित है। दीवाने खास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वीं के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है, जो कि राजपुताना शैली में बनी हुई है। आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमें से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकर मंदिर है, जो कि शाहजहां से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए हैं। लाल किले के मुख्य द्वार के ऊपर बनी हुई अलमारी या आलिया इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि यहां पहले गणेशजी की मूर्ति रखी होती थी। पुरानी शैली के हिन्दू घरों के मुख्य द्वार के ठीक ऊपर या मंदिरों के द्वार के ऊपर एक छोटा सा आलिया बना होता है जिसके अंदर गणेशजी की प्रतिमा विराजमान होती है।
11 मार्च 1783 को सिखों ने लाल किले में प्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा कर लिया था। नगर को मुगल वजीरों ने अपने सिख साथियों को समर्पित कर दिया। उसके बाद इस पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।
#आगराकाकिला : उत्तरप्रदेश के आगरा में स्थित आगरा का किला यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की सूची में दर्ज है। इस किले में मुगल बादशाह बाबर, हुंमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगजेब रहते थे। यहीं से उन्होंने आधे भारत पर शासन किया। ये सभी विदेशी थे जिन्हें भारत में तुर्क कहा जाता था।
आगरा का किला मूलतः एक ईंटों का किला था, जो चौहान वंश के राजपूतों के पास था। इस किले का प्रथम विवरण 1080 ईस्वी में आता है, जब महमूद गजनवी की सेना ने इस पर कब्जा कर लिया था। पुरुशोत्तम नागेश ओक की किताब 'आगरे का लाल किला हिन्दू भवन है।' में भी इसका जिक्र है।
सिकंदर लोधी (1487-1517) ने भी इस किले में कुछ दिन गुजारे थे। लोधी दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था। उसकी मृत्यु भी इसी किले में 1517 में हुई थी। इसके बाद उसके पुत्र इब्राहीम लोधी ने गद्दी संभाली।
पानीपत के युद्ध के बाद यह किला मुगलों के हाथ में आ गया। यहां उन्हें अपार संपत्ति मिली। फिर इस किले में इब्राहीम के स्थान पर बाबर आया और उसने यहीं से अपने क्रूर शासन का संचालन किया।
इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा है कि यह किला एक ईंटों का किला था जिसका नाम बादलगढ़ था। यह तब खस्ता हालत में था। अकबर ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। हिन्दू शैली में बने किले के स्तंभों में बाद में तुर्क शैली में नक्काशी की गई। बाद में अकबर के पौत्र शाहजहां ने इसे अपने तरीके से रंग-रूप दिया। उसने किले के निर्माण के समय राजपुताना समय की कई पुरानी इमारतों व भवनों को तुड़वा भी दिया था।
#ढाई_दिन_का_झोपड़ा : माना जाता है कि ख्वाजा साहब (1161 ईस्वी) की दरगाह से एक फर्लांग आगे त्रिपोली दरवाजे के पार पृथ्वीराज चौहान के एक पूर्वज द्वारा बनवाए गए 3 मंदिरों के परिसर में एक संस्कृत पाठशाला थी जिसकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज विग्रहराज तृतीय ने लगभग 1158 ईस्वी में की थी। वह साहित्य प्रेमी था और स्वयं नाटक लिखता था। उनमें से एक हरकेली नाटक काले पत्थरों पर उत्कीर्ण किया गया, जो अजमेर स्थित अकबर किला के राजपुताना संग्रहालय में आज भी संग्रहित है।
इसी संग्रहालय में उक्त परिसर में लाई गई लगभग 100 सुंदर मूर्तियां एक पंक्ति में रखी हुई हैं। ऐसा ही एक नाटक और मिला, जो राजकवि सोमदेव द्वारा रचित था। बलुआ पत्थर की मूर्तियां लगभग 900 वर्षों से सुरक्षित हैं लेकिन सभी मूर्तियों के चेहरे व्यवस्थित रूप से तोड़ दिए गए हैं। मंदिर परिसर के अहाते में भी विशाल भंडारगृह है जिसमें और भी अनेक सुंदर मूर्तियां हैं। अपेक्षाकृत कम महत्व के अवशेष अहाते में इस प्रकार पड़े हैं कि जो चाहे उन्हें ले जाए। पिछले 800 वर्षों से यह परिसर अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम से विख्यात है। यह नाम इसलिए रखा गया है, क्योंकि पहले परिसर के 3 मंदिरों को ढाई दिन के भीतर मस्जिद के रूप में बदल दिया गया था।
यह मस्जिद वर्तमान में राजस्थान के अजमेर में स्थित है। पहले यह संस्कृत पाठशाला थी। इसे मोहम्मद गौरी ने मस्जिद में तब्दील कर दिया। इसे मस्जिद का लुक देने के लिए अबु बकर ने डिजाइन तैयार किया था। अब लोग इसे ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं। क्यों? इसलिए कि कट्टरपंथियों ने यह प्रचार किया कि इस मस्जिद का निर्माण ढाई दिन में किया गया है। मस्जिद का अंदरुनी हिस्सा किसी मस्जिद की तुलना में मंदिर की तरह दिखता है।
तराईन के दूसरे युद्ध (1192) के बाद मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया था, तब वह विजेता के रूप में अजमेर से गुजरा था। वह यहां मंदिर से इतना भयभीत हुआ कि उसने उसे तुरंत नष्ट करके उसके स्थान पर मस्जिद बनाने की इच्छा प्रकट की। उसने अपने गुलाम सेनापति को सारा काम 60 घंटे में पूरा करने का आदेश दिया ताकि लौटते समय वह नई मस्जिद में नमाज अदा कर सके। ढाई दिन के झोपड़े को बाद में पूरा किया गया और उसमें सुंदर नक्काशीदार दरवाजा लगाया गया।
काशी विश्वनाथ : द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण है।
सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।
इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
#कृष्णजन्मभूमि : मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मभूमि है और उसी जन्मभूमि के आधे हिस्से पर बनी है ईदगाह। औरंगजेब ने 1660 में मथुरा में कृष्ण मंदिर को तुड़वाकर ईदगाह बनवाई थी।
जन्मभूमि का इतिहास : जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिर विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था।
इस भव्य मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनवी ने तोड़ दिया था। बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया। यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुंदेला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया। इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था। लेकिन इसे भी मुस्लिम शासकों ने सन् 1660 में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक भव्य ईदगाह बनवा दी, जो कि आज भी विद्यमान है। 1669 में इस ईदगाह का निर्माण कार्य पूरा हुआ।
इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है, क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
#राम_जन्मभूमि : राम जन्म भूमि के अंदर उच्च न्यायालय द्वारा फैसला आ चुका है और राम मंदिर मंदिर बनना प्रारंभ हो चुका है
सालों तक चली सुनवाई के बाद और के के मोहम्मद आर्कियोलॉजिस्ट एवं उनकी टीम एवं अन्य साक्ष्यों के आधार पर यह साबित हुआ कि यहां पर पहले मंदिर बने हुए थे
#भोजशाला : धार, भोपाल और उज्जैन भोज राजाओं की राजधानी थी। राजा भोज सरस्वती के उपासक थे इसलिए उन्होंने धार में सरस्वती का एक भव्य मंदिर बनवाया था। इतिहासकार शिवकुमार गोयल अनुसार 1305 में इस भोजशाला मंदिर को अलाउद्दीन खिलजी ने ध्वस्त कर दिया था। राजा भोज ने सन् 1034 में मां सरस्वती की अनूठी मूर्ति का निर्माण कराकर भोजशाला में प्रतिष्ठित किया था। तभी से वसंत पंचमी के दिन सरस्वती जन्मोत्सव मनाया जाता है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां विवाद गहरा गया है।
खिलजी द्वारा ध्वस्त कराई गई भोजशाला के एक भाग पर 1401 में दिलावर खां गौरी ने मस्जिद बनवाई थी। सन् 1514 में महमूद शाह खिलजी ने शेष भाग पर भी मस्जिद बनवा दी। हिन्दू जनता ने अनेक ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत कर यहां फिर से भोजशाला का निर्माण करने की मांग रखी है, लेकिन मामला अब विवादित हो चला है।
#मांडव : संपूर्ण मांडव को परमारवंश के राजा ने बसाया था। यहां के सभी महल और स्मारक परमारवंशियों ने बनवाए थे। संस्कृत में मण्डप दुर्ग, हिन्दी में माण्डव, जैन साहित्य में माण्डवगढ उर्दू में माण्डू आदि नामों से भी इस नगरी को जाना जाता है।
मांडू मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित एक पर्यटन स्थल है। यह इन्दौर से लगभग 90 किमी दूर है। मांडू विन्ध्य की पहाड़ियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलत: मालवा के परमार राजाओं की राजधानी रहा था। लेकिन इससे पहले यह माण्डव्य ऋषि की तपोभूमि था।
तेरहवीं शती में मालवा के सुलतानों ने इसका नाम शादियाबाद यानि 'खुशियों का शहर' रख दिया था। यहां के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वाली मस्जिद सभी को इस्लामिक लुक देकर उन पर अरबी में इबारतें लिख दी गई।
परमार शासकों द्वारा बनाए गए इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं। होशंग शाह की मस्जिद, जामी मस्जिद, नहर झरोखा, बाज बहादुर महल, रानी रूपमति महल और नीलकंठ महल सभी परमारकालीन स्थापत्य कला की छाप है। होशंग शाह मालवा का प्रथम सुलतान था जिसने राजा भोज द्वारा बनाए गए स्मारकों, स्तंभों, बावड़ियों, मंदिरों आदि सभी भव्य स्थलों तो तोड़ा और कुछ का इस्लामिकरण किया। इसके लिए खासकर राजा भोज के प्रमुख नगर उज्जैन, धार, माण्डव, भोपाल, ग्वालियर, रायगढ़, जबलपुर आदि को चुना।
माण्डव में मलिक मुगिस की मस्जिद एवं दिलावर खां की मस्जिद स्थित है। जिनका निर्माण भी हिन्दू एवं जैन मंदिरों की सामग्रियों से ही हुआ था। यह सामग्री धार व मालवा के अन्य हिन्दू देवालयों एवं जैन मंदिरों से माण्डव में लाई गई थी। हालांकि यह दोनों ही मस्जिद अब नष्ट प्रायः है।
इनके अलावा भी हजारों मंदिर एवं महल है जिन को ध्वस्त करके मस्जिद एवं मकबरे बनाए गए हैं
राम मंदिर से पहले न्यायालय के अंदर 1009 याचिकाएं लगी हुई थी जिनमें से केवल राम मंदिर पर ही फैसला आ पाया है अभी भी 1008 याचिकाएं बाकी है जिनमें से कृष्ण जन्मभूमि काशी विश्वनाथ मंदिर पर सुनवाई आने वाले समय में शुरू हो सकती है ।
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